उर्दू जिसे कहते हैं तहज़ीब का चश्मा है
वो शख़्स मोहज़्ज़ब है जिस को ये ज़बाँ आई
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वो शख़्स अपनी जगह है मुरक़्क़ा-ए-तहज़ीब
सख़्त जान-लेवा है सादगी मोहब्बत की
नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
पास-ए-वहशत है तो याद-ए-रुख़-ए-लैला भी न कर
वो बर्क़-ए-नाज़ गुरेज़ाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
दिल गवारा नहीं करता है शिकस्त-ए-उम्मीद
अब इस से क्या ग़रज़ ये हरम है कि दैर है
वो कहाँ दर्द जो दिल में तिरे महदूद रहा
उस से बढ़ कर तो कोई बे-सर-ओ-सामाँ न मिला
क्या कहूँ क्या मिला है क्या न मिला
पशेमाँ हैं तर्क-ए-मोहब्बत के बा'द
ख़ल्वती-ए-ख़याल को होश में कोई लाए क्यूँ