हज़ार रुख़ तिरे मिलने के हैं न मिलने में
किसे फ़िराक़ कहूँ और किसे विसाल कहूँ
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नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
पशेमाँ हैं तर्क-ए-मोहब्बत के बा'द
उम्र-ए-अबद से ख़िज़्र को बे-ज़ार देख कर
वो निकहत-ए-गेसू फिर ऐ हम-नफ़साँ आई
शिकस्त-ए-रंग-ए-तमन्ना को अर्ज़-ए-हाल कहूँ
ख़ल्वती-ए-ख़याल को होश में कोई लाए क्यूँ
चला है ले के मुझे ज़ौक़-ए-जुस्तुजू मेरा
हुस्न-ए-असनाम ब-हर-लम्हा फ़ुज़ूँ है कि नहीं
तुझ पे खुल जाए कि क्या मेहर को शबनम से मिला
ख़ून-ए-दिल सर्फ़ कर रहा हूँ 'रविश'
उस से बढ़ कर तो कोई बे-सर-ओ-सामाँ न मिला