इश्क़ ख़ुद अपनी जगह मज़हर-ए-अनवार-ए-ख़ुदा
अक़्ल इस सोच में गुम किस को ख़ुदा कहते हैं
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
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Rahat Indori
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हज़ार रुख़ तिरे मिलने के हैं न मिलने में
उस से बढ़ कर तो कोई बे-सर-ओ-सामाँ न मिला
हम मय-कशों के क़दमों पर अक्सर
सुकूँ है हमनवा-ए-इज़्तिराब आहिस्ता आहिस्ता
क्या कहूँ क्या मिला है क्या न मिला
रंग उस महफ़िल-ए-तमकीं में जमाया न गया
उम्र-ए-अबद से ख़िज़्र को बे-ज़ार देख कर
कहने को सब फ़साना-ए-ग़ैब-ओ-शुहूद था
बुतान-ए-शहर को ये ए'तिराफ़ हो कि न हो
नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
पशेमाँ हैं तर्क-ए-मोहब्बत के बा'द