हम रूह-ए-सफ़र हैं हमें नामों से न पहचान
कल और किसी नाम से आ जाएँगे हम लोग
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जिस ने बनाया हर आईना मैं ही था
दस्तक सी ये क्या थी कोई साया है कि मैं हूँ
रंग अब यूँ तिरी तस्वीर में भरता जाऊँ
छेड़ के साज़-ए-ज़रगरी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा है रक़्स में
दो बादल आपस में मिले थे फिर ऐसी बरसात हुई
वो जंग मैं ने महाज़-ए-अना पे हारी है
रोज़ इक शख़्स चला जाता है ख़्वाहिश करता
जाने क्या है जिसे देखो वही दिल-गीर लगे
अब सफ़र हो तो कोई ख़्वाब-नुमा ले जाए
ख़ुश्बू हैं तो हर दौर को महकाएँगे हम लोग
जिस पल मैं ने घर की इमारत ख़्वाब-आसार बनाई थी
वो शाख़-ए-गुल कि जो आवाज़-ए-अंदलीब भी थी