दो बादल आपस में मिले थे फिर ऐसी बरसात हुई
जिस्म ने जिस्म से सरगोशी की रूह की रूह से बात हुई
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कैसे कटे क़सीदा-गो हर्फ़-गरों के दरमियाँ
यूँ तो लिखने के लिए क्या नहीं लिक्खा मैं ने
दिन का मलाल शाम की वहशत कहाँ से लाएँ
अब सफ़र हो तो कोई ख़्वाब-नुमा ले जाए
हलाक-ए-कश्मकश-ए-राएगाँ बहुत से हैं
जाने क्या है जिसे देखो वही दिल-गीर लगे
मैं जब भी क़त्ल हो कर देखता हूँ
ख़ुश्बू हैं तो हर दौर को महकाएँगे हम लोग
संग हैं नावक-ए-दुश्नाम हैं रुस्वाई है
मुझ को पाना है तो फिर मुझ में उतर कर देखो
कुछ लोग समझने ही को तयार नहीं थे
अब कैसे चराग़ क्या चराग़ाँ