अब कैसे चराग़ क्या चराग़ाँ
जब सारा वजूद जल रहा है
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हम रूह-ए-सफ़र हैं हमें नामों से न पहचान
कुछ लोग समझने ही को तयार नहीं थे
दो बादल आपस में मिले थे फिर ऐसी बरसात हुई
रंग अब यूँ तिरी तस्वीर में भरता जाऊँ
हम जहाँ नग़्मा-ओ-आहंग लिए फिरते हैं
छेड़ के साज़-ए-ज़रगरी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा है रक़्स में
हम इतने परेशाँ थे कि हाल-ए-दिल-ए-सोज़ाँ
वो तमाम रंग अना के थे वो उमंग सारी लहू से थी
संग हैं नावक-ए-दुश्नाम हैं रुस्वाई है
अब सफ़र हो तो कोई ख़्वाब-नुमा ले जाए
बिछड़ते वक़्त तो कुछ उस में ग़म-गुसारी थी
ख़्वाबों की इक भीड़ लगी है जिस्म बेचारा नींद में है