हम इतने परेशाँ थे कि हाल-ए-दिल-ए-सोज़ाँ
उन को भी सुनाया कि जो ग़म-ख़्वार नहीं थे
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अब सफ़र हो तो कोई ख़्वाब-नुमा ले जाए
हलाक-ए-कश्मकश-ए-राएगाँ बहुत से हैं
छेड़ के साज़-ए-ज़रगरी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा है रक़्स में
जिस पल मैं ने घर की इमारत ख़्वाब-आसार बनाई थी
वो तमाम रंग अना के थे वो उमंग सारी लहू से थी
आए हम शहर-ए-ग़ज़ल में तो इस आग़ाज़ के साथ
अब कैसे चराग़ क्या चराग़ाँ
था मिरी जस्त पे दरिया बड़ी हैरानी में
जिस ने बनाया हर आईना मैं ही था
वो जंग मैं ने महाज़-ए-अना पे हारी है
आवार्गान-ए-शौक़ सभी घर के हो गए
ऐ सुब्ह-ए-उमीद देर क्या है