सिमटती फैलती तन्हाई सोते जागते दर्द
वो अपने और मिरे दरमियान छोड़ गया
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हो गया है एक इक पल काटना भारी मुझे
निशान क़ाफ़ला-दर-क़ाफ़ला रहेगा मिरा
मकान-ए-दिल से जो उठता था वो धुआँ भी गया
उस ने इक दिन भी न पूछा बोल आख़िर किस लिए
मुसाफ़िरत के तहय्युर से कट के कब आए
रात दिन महबूस अपने ज़ाहिरी पैकर में हूँ
छुपे हुए थे जो नक़्द-ए-शुऊ'र के डर से
जो सोचता हूँ अगर वो हवा से कह जाऊँ
हम फ़लक के आदमी थे साकिनान-ए-क़र्या-ए-महताब थे
इसी हुजूम में लड़-भिड़ के ज़िंदगी कर लो
वक़्त ख़ुश-ख़ुश काटने का मशवरा देते हुए
अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़