वक़्त ख़ुश ख़ुश काटने का मशवरा देते हुए
रो पड़ा वो आप मुझ को हौसला देते हुए
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आँच आएगी न अंदर की ज़बाँ तक ऐ दिल
मकान-ए-दिल से जो उठता था वो धुआँ भी गया
अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़
सिमटती फैलती तन्हाई सोते जागते दर्द
जो सोचता हूँ अगर वो हवा से कह जाऊँ
उस ने इक दिन भी न पूछा बोल आख़िर किस लिए
छुपे हुए थे जो नक़्द-ए-शुऊ'र के डर से
दर्द ग़ज़ल में ढलने से कतराता है
जो सैल-ए-दर्द उठा था वो जान छोड़ गया
इक घर बना के कितने झमेलों में फँस गए
वक़्त ख़ुश-ख़ुश काटने का मशवरा देते हुए
किसी भी तौर तबीअ'त कहाँ सँभलने की