इक घर बना के कितने झमेलों में फँस गए
कितना सुकून बे-सर-ओ-सामानियों में था
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जो सोचता हूँ अगर वो हवा से कह जाऊँ
इसी हुजूम में लड़-भिड़ के ज़िंदगी कर लो
वो दिल कि था कभी सरसब्ज़ खेतियों की तरह
मकान-ए-दिल से जो उठता था वो धुआँ भी गया
उस ने इक दिन भी न पूछा बोल आख़िर किस लिए
हो गया है एक इक पल काटना भारी मुझे
जब अगले साल यही वक़्त आ रहा होगा
वक़्त ख़ुश-ख़ुश काटने का मशवरा देते हुए
आँच आएगी न अंदर की ज़बाँ तक ऐ दिल
ख़ुद में झाँका तो अजब मंज़र नज़र आया मुझे
जो सैल-ए-दर्द उठा था वो जान छोड़ गया