ये उम्र भर का सफ़र है इसी सहारे पर
कि वो खड़ा है अभी दूसरे किनारे पर
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इक सफ़र पर उसे भेज कर आ गए
इक शोर समेटो जीवन भर और चुप दरिया में उतर जाओ
ख़्वाब तुम्हारे आते हैं
इक शक्ल बे-इरादा सर-ए-बाम आ गई
खेल रचाया उस ने सारा वर्ना फिर क्यूँ होता मैं
गुल ओ महताब लिखना चाहता हूँ
वो फूल था जादू-नगरी में जिस फूल की ख़ुश्बू भाई थी
उस जंगल से जब गुज़रोगे तो एक शिवाला आएगा
करता है कोई और भी गिर्या मिरे दिल में
लोगो ये अजीब सानेहा है
राह में शहर-ए-तरब याद आया