ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
ज़रा उम्र-ए-रफ़्ता को आवाज़ देना
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ख़त्म हो जाते जो हुस्न ओ इश्क़ के नाज़ ओ अदा
तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं
पैग़ाम ज़िंदगी ने दिया मौत का मुझे
वो आलम है कि मुँह फेरे हुए आलम निकलता है
मिरी नाश के सिरहाने वो खड़े ये कह रहे हैं
उर्दू-ए-मुअ'ल्ला
दें भी जवाब-ए-ख़त कि न दें क्या ख़बर मुझे
बनावट हो तो ऐसी हो कि जिस से सादगी टपके
दर्द-ए-आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अब अंजाम नहीं