जनाज़ा रोक कर मेरा वो इस अंदाज़ से बोले
गली हम ने कही थी तुम तो दुनिया छोड़े जाते हो
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कोई आबाद मंज़िल हम जो वीराँ देख लेते हैं
पैग़ाम ज़िंदगी ने दिया मौत का मुझे
दर्द-ए-आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अब अंजाम नहीं
मिरी नाश के सिरहाने वो खड़े ये कह रहे हैं
तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं
बनावट हो तो ऐसी हो कि जिस से सादगी टपके
जाना जाना जल्दी क्या है इन बातों को जाने दो
ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
दें भी जवाब-ए-ख़त कि न दें क्या ख़बर मुझे
वो आलम है कि मुँह फेरे हुए आलम निकलता है
तड़प के रात बसर की जो इक मुहिम सर की