हम उन से आज का शिकवा करेंगे
क़ब्र में अब किसी का ध्यान नहीं
इश्क़ करने में दिल भी क्या है शोख़
रुख़-ए-रौशन पे सफ़ा लोट गई
न आशिक़ हैं ज़माने में न माशूक़
घर में साक़ी-ए-मस्त के चल के
अपने क़ासिद को सबा बाँधते हैं
निस्बत वही माह-ए-आसमाँ से
मुंकिर-ए-बुत है ये जाहिल तो नहीं
कहना मजनूँ से कि कल तेरी तरफ़ आऊँगा
हैफ़ साबित है जेब ने दामन
दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं