तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'
इस भरे शहर की जो शक्ल हुई है मुझ में
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कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से
मोहलत न मिली ख़्वाब की ताबीर उठाते
जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को 'सलीम' सुब्ह न मिल सकी
अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं
तू सूरज है तेरी तरफ़ देखा नहीं जा सकता
कोई याद ही रख़्त-ए-सफ़र ठहरे कोई राहगुज़र अनजानी हो
कहीं तुम अपनी क़िस्मत का लिखा तब्दील कर लेते
कभी सितारे कभी कहकशाँ बुलाता है
याद कहाँ रखनी है तेरा ख़्वाब कहाँ रखना है
मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
न इस तरह कोई आया है और न आता है
बहुत दिनों में कहीं हिज्र-ए-माह-ओ-साल के बाद