तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
तिरी दास्ताँ कोई और थी मिरा वाक़िआ कोई और है
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क़दमों में साए की तरह रौंदे गए हैं हम
मोहलत न मिली ख़्वाब की ताबीर उठाते
ऐ शब-ए-हिज्र अब मुझे सुब्ह-ए-विसाल चाहिए
मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
मैं उसे तुझ से मिला देता मगर दिल मेरे
कोई सच्चे ख़्वाब दिखाता है पर जाने कौन दिखाता है
न इस तरह कोई आया है और न आता है
जुनूँ तब्दीली-ए-मौसम का तक़रीरों की हद तक है
तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'
अभी जो गर्दिश-ए-अय्याम से मिला हूँ मैं
अब जो लहर है पल भर बाद नहीं होगी यानी
मोहब्बत अपने लिए जिन को मुंतख़ब कर ले