मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
जो नहीं लिक्खा अभी उस की बशारत दूँगा
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दिल तुझे नाज़ है जिस शख़्स की दिलदारी पर
तिलिस्म-ख़ाना-ए-अस्बाब मेरे सामने था
क़दमों में साए की तरह रौंदे गए हैं हम
जुदाई भी न होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती
दिल-ए-सीमाब-सिफ़त फिर तुझे ज़हमत दूँगा
डूबने वाले भी तन्हा थे तन्हा देखने वाले थे
ये लोग जिस से अब इंकार करना चाहते हैं
तुम ने सच बोलने की जुरअत की
कुछ इस तरह से वो शामिल हुआ कहानी में
तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'
ज़ोरों पे 'सलीम' अब के है नफ़रत का बहाव
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा