मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
तू क़रीब आ तुझे देख लूँ तू वही है या कोई और है
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कभी सितारे कभी कहकशाँ बुलाता है
डूबने वाले भी तन्हा थे तन्हा देखने वाले थे
जुदाई भी न होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती
मैं जानता हूँ मकीनों की ख़ामुशी का सबब
देखते कुछ हैं दिखाते हमें कुछ हैं कि यहाँ
चश्म बे-ख़्वाब हुई शहर की वीरानी से
आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
वो जो आए थे बहुत मंसब-ओ-जागीर के साथ
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता
कोई याद ही रख़्त-ए-सफ़र ठहरे कोई राहगुज़र अनजानी हो
लौ को छूने की हवस में एक चेहरा जल गया
तुझ से बढ़ कर कोई प्यारा भी नहीं हो सकता