आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
हम तिरे वास्ते तय्यार हुआ करते थे
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हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
सरासर नफ़ा था लेकिन ख़सारा जा रहा है
आब ओ हवा है बरसर-ए-पैकार कौन है
ऐ शब-ए-हिज्र अब मुझे सुब्ह-ए-विसाल चाहिए
ख़ामोश सही मरकज़ी किरदार तो हम थे
न इस तरह कोई आया है और न आता है
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं