ख़ामोश सही मरकज़ी किरदार तो हम थे
फिर कैसे भला तेरी कहानी से निकलते
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बस इक रस्ता है इक आवाज़ और एक साया है
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
क्या बताएँ फ़स्ल-ए-बे-ख़्वाबी यहाँ बोता है कौन
वो आँखें जिन से मुलाक़ात इक बहाना हुआ
न इस तरह कोई आया है और न आता है
फिर जी उठे हैं जिस से वो इम्कान तुम नहीं
तू सूरज है तेरी तरफ़ देखा नहीं जा सकता
मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
कोई याद ही रख़्त-ए-सफ़र ठहरे कोई राहगुज़र अनजानी हो
कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
ऐ मिरे चारागर तिरे बस में नहीं मोआमला