दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
तुम दोस्त हो तो क्यूँ नहीं मुश्किल समझते हो
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फिर जी उठे हैं जिस से वो इम्कान तुम नहीं
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता
मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूँ तो किसी के हर्फ़-ए-दुआ में हूँ
वहाँ महफ़िल न सजाई जहाँ ख़ल्वत नहीं की
जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को 'सलीम' सुब्ह न मिल सकी
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
चराग़-ए-याद की लौ हम-सफ़र कहाँ तक है
कभी सितारे कभी कहकशाँ बुलाता है
कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से
बदल गया है सभी कुछ उस एक साअत में
वुसअत है वही तंगी-अफ़्लाक वही है