मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है
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अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
साँस लेने से भी भरता नहीं सीने का ख़ला
बहुत दिनों में कहीं हिज्र-ए-माह-ओ-साल के बाद
न इस तरह कोई आया है और न आता है
हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया
क्या बताएँ फ़स्ल-ए-बे-ख़्वाबी यहाँ बोता है कौन
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता
कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
जुनूँ तब्दीली-ए-मौसम का तक़रीरों की हद तक है
तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
बदल गया है सभी कुछ उस एक साअत में
ये आग लगने से पहले की बाज़-गश्त है जो