बहुत दिनों में कहीं हिज्र-ए-माह-ओ-साल के बाद
रुका हुआ है ज़माना तिरे विसाल के बाद
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तुम तो कहते थे कि सब क़ैदी रिहाई पा गए
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता
मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूँ तो किसी के हर्फ़-ए-दुआ में हूँ
कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे
तिलिस्म-ख़ाना-ए-अस्बाब मेरे सामने था
बस इक रस्ता है इक आवाज़ और एक साया है
कोई सच्चे ख़्वाब दिखाता है पर जाने कौन दिखाता है
मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
ज़ोरों पे 'सलीम' अब के है नफ़रत का बहाव
वक़्त रुक रुक के जिन्हें देखता रहता है 'सलीम'
वुसअत है वही तंगी-अफ़्लाक वही है
अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं