तुम तो कहते थे कि सब क़ैदी रिहाई पा गए
फिर पस-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ रात-भर रोता है कौन
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क्या अजब कार-ए-तहय्युर है सुपुर्द-ए-नार-ए-इश्क़
तमाम उम्र सितारे तलाश करता फिरा
वो आँखें जिन से मुलाक़ात इक बहाना हुआ
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
और इस से पहले कि साबित हो जुर्म-ए-ख़ामोशी
साए गली में जागते रहते हैं रात भर
ख़ामोश सही मरकज़ी किरदार तो हम थे
जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को 'सलीम' सुब्ह न मिल सकी
तुझ से बढ़ कर कोई प्यारा भी नहीं हो सकता
क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
अहल-ए-ख़िरद को आज भी अपने यक़ीन के लिए