क्या अजब कार-ए-तहय्युर है सुपुर्द-ए-नार-ए-इश्क़
घर में जो था बच गया और जो नहीं था जल गया
Parveen Shakir
Habib Jalib
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मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
लौ को छूने की हवस में एक चेहरा जल गया
क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से
हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया
वक़्त रुक रुक के जिन्हें देखता रहता है 'सलीम'
जुदाई भी न होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती
कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से
अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं
दुनिया अच्छी भी नहीं लगती हम ऐसों को 'सलीम'
अहल-ए-ख़िरद को आज भी अपने यक़ीन के लिए