हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया
तुम ने क्या सोच कर मोहब्बत की
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ख़ामोश सही मरकज़ी किरदार तो हम थे
न इस तरह कोई आया है और न आता है
ये लोग इश्क़ में सच्चे नहीं हैं वर्ना हिज्र
याद का ज़ख़्म भी हम तुझ को नहीं दे सकते
आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
वो जिन के नक़्श-ए-क़दम देखने में आते हैं
फिर जी उठे हैं जिस से वो इम्कान तुम नहीं
मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूँ तो किसी के हर्फ़-ए-दुआ में हूँ
क्या बताएँ फ़स्ल-ए-बे-ख़्वाबी यहाँ बोता है कौन
ऐ शब-ए-हिज्र अब मुझे सुब्ह-ए-विसाल चाहिए
क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं