ये लोग इश्क़ में सच्चे नहीं हैं वर्ना हिज्र
न इब्तिदा न कहीं इंतिहा में आता है
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आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को 'सलीम' सुब्ह न मिल सकी
वो जो हम-रही का ग़ुरूर था वो सवाद-ए-राह में जल-बुझा
मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न कर
ये लोग जिस से अब इंकार करना चाहते हैं
तुम तो कहते थे कि सब क़ैदी रिहाई पा गए
मैं जानता हूँ मकीनों की ख़ामुशी का सबब
चश्म बे-ख़्वाब हुई शहर की वीरानी से
जुदाई भी न होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती
'सलीम' अब तक किसी को बद-दुआ दी तो नहीं लेकिन
कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे
तिलिस्म-ख़ाना-ए-अस्बाब मेरे सामने था