कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से
कभी दिल पर आँच नहीं आती कभी रंग ख़राब नहीं होता
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डूबने वाले भी तन्हा थे तन्हा देखने वाले थे
कभी मौसम साथ नहीं देते कभी बेल मुंडेर नहीं चढ़ती
देखते कुछ हैं दिखाते हमें कुछ हैं कि यहाँ
जुनूँ तब्दीली-ए-मौसम का तक़रीरों की हद तक है
कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे
पुकारते हैं उन्हें साहिलों के सन्नाटे
ज़ोरों पे 'सलीम' अब के है नफ़रत का बहाव
क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
लौ को छूने की हवस में एक चेहरा जल गया
अभी जो गर्दिश-ए-अय्याम से मिला हूँ मैं
तुम तो कहते थे कि सब क़ैदी रिहाई पा गए
कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से