तमाम उम्र सितारे तलाश करता फिरा
पलट के देखा तो महताब मेरे सामने था
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जुनूँ तब्दीली-ए-मौसम का तक़रीरों की हद तक है
ये लोग इश्क़ में सच्चे नहीं हैं वर्ना हिज्र
क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं
ऐ शब-ए-हिज्र अब मुझे सुब्ह-ए-विसाल चाहिए
देखते कुछ हैं दिखाते हमें कुछ हैं कि यहाँ
'सलीम' अब तक किसी को बद-दुआ दी तो नहीं लेकिन
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता
मैं उसे तुझ से मिला देता मगर दिल मेरे
बदल गया है सभी कुछ उस एक साअत में
कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे
तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'