तुम ने सच बोलने की जुरअत की
ये भी तौहीन है अदालत की
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तिलिस्म-ख़ाना-ए-अस्बाब मेरे सामने था
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न कर
बदल गया है सभी कुछ उस एक साअत में
ये आग लगने से पहले की बाज़-गश्त है जो
देखते कुछ हैं दिखाते हमें कुछ हैं कि यहाँ
कभी सितारे कभी कहकशाँ बुलाता है
क्या बताएँ फ़स्ल-ए-बे-ख़्वाबी यहाँ बोता है कौन
वुसअत है वही तंगी-अफ़्लाक वही है
वो जो आए थे बहुत मंसब-ओ-जागीर के साथ
क़दमों में साए की तरह रौंदे गए हैं हम
ये लोग जिस से अब इंकार करना चाहते हैं