क़दमों में साए की तरह रौंदे गए हैं हम
हम से ज़ियादा तेरा तलबगार कौन है
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ऐ शब-ए-हिज्र अब मुझे सुब्ह-ए-विसाल चाहिए
मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न कर
ये लोग जिस से अब इंकार करना चाहते हैं
वो जो हम-रही का ग़ुरूर था वो सवाद-ए-राह में जल-बुझा
वो जो आए थे बहुत मंसब-ओ-जागीर के साथ
मैं उसे तुझ से मिला देता मगर दिल मेरे
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
देखते कुछ हैं दिखाते हमें कुछ हैं कि यहाँ
कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से
तमाम उम्र सितारे तलाश करता फिरा
तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'
तिलिस्म-ख़ाना-ए-अस्बाब मेरे सामने था