साए गली में जागते रहते हैं रात भर
तन्हाइयों की ओट से झाँका न कर मुझे
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क़दमों में साए की तरह रौंदे गए हैं हम
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे
वहाँ महफ़िल न सजाई जहाँ ख़ल्वत नहीं की
तारे जो कभी अश्क-फ़िशानी से निकलते
और इस से पहले कि साबित हो जुर्म-ए-ख़ामोशी
इक घड़ी वस्ल की बे-वस्ल हुई है मुझ में
कभी सितारे कभी कहकशाँ बुलाता है
ऐ मिरे चारागर तिरे बस में नहीं मोआमला
कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए