रात को रात ही इस बार कहा है हम ने
हम ने इस बार भी तौहीन-ए-अदालत नहीं की
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कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से
कभी मौसम साथ नहीं देते कभी बेल मुंडेर नहीं चढ़ती
जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को 'सलीम' सुब्ह न मिल सकी
तमाम उम्र सितारे तलाश करता फिरा
कोई सच्चे ख़्वाब दिखाता है पर जाने कौन दिखाता है
अब फ़ैसला करने की इजाज़त दी जाए
क़दमों में साए की तरह रौंदे गए हैं हम
चश्म बे-ख़्वाब हुई शहर की वीरानी से
अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं
मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर