कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से
हम भरे शहर की ख़ल्वत में मिले हैं तुझ से
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ऐ शब-ए-हिज्र अब मुझे सुब्ह-ए-विसाल चाहिए
अब फ़ैसला करने की इजाज़त दी जाए
दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
इस आलम-ए-हैरत-ओ-इबरत में कुछ भी तो सराब नहीं होता
तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
चश्म बे-ख़्वाब हुई शहर की वीरानी से
याद का ज़ख़्म भी हम तुझ को नहीं दे सकते
वो जो आए थे बहुत मंसब-ओ-जागीर के साथ
कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
ये आग लगने से पहले की बाज़-गश्त है जो