मोहब्बत अपने लिए जिन को मुंतख़ब कर ले
वो लोग मर के भी मरते नहीं मोहब्बत में
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दिल-ए-सीमाब-सिफ़त फिर तुझे ज़हमत दूँगा
तू सूरज है तेरी तरफ़ देखा नहीं जा सकता
मोहलत न मिली ख़्वाब की ताबीर उठाते
बहुत दिनों में कहीं हिज्र-ए-माह-ओ-साल के बाद
मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
फिर जी उठे हैं जिस से वो इम्कान तुम नहीं
क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न कर