इक वही शख़्स मुझ को याद रहा
जिस को समझा था भूल जाऊँगा
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क्या नहीं जानता मुझे कोई
ख़ाली बरामदों ने मुझे देख कर कहा
तेग़ खींचे हुए खड़ा क्या है
ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत न हो मगर
चाँद सूरज की तरह तुम भी हो क़ुदरत का खेल
ज़ुल्म है तख़्त ताज सन्नाटा
रह गया कम ही गो सफ़र बाक़ी
कभी ख़्वाबों में मिला वो तो ख़यालों में कभी
ये तमन्ना है कि अब और तमन्ना न करें
मुझे ख़बर न थी इस घर में कितने कमरे हैं
जिस से सारे चराग़ जलते थे
वो भी हमारे नाम से बेगाने हो गए