ख़ाली बरामदों ने मुझे देख कर कहा
क्या बात है उदास से कुछ लग रहे हो तुम
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ज़िंदगी हम से तो इस दर्जा तग़ाफ़ुल न बरत
मैं तुझ से लाख बिछड़ कर यहाँ वहाँ जाता
हज़ार चाहें मगर छूट ही नहीं सकती
जीना अज़ाब क्यूँ है ये क्या हो गया मुझे
जिस से सारे चराग़ जलते थे
इक वही शख़्स मुझ को याद रहा
ये तमन्ना है कि अब और तमन्ना न करें
क्या नहीं जानता मुझे कोई
देखे जो मेरी नेकी को शक की निगाह से
हम जो पहले कहीं मिले होते
ये अलग बात कि वो मुझ से ख़फ़ा रहता है
बे-वज्ह ज़ुल्म सहने की आदत नहीं रही