हज़ार चाहें मगर छूट ही नहीं सकती
बड़ी अजीब है ये मय-कशी की आदत भी
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कोई शय एक सी नहीं रहती
तेग़ खींचे हुए खड़ा क्या है
चाँद सूरज की तरह तुम भी हो क़ुदरत का खेल
मुझे ख़बर न थी इस घर में कितने कमरे हैं
गुफ़्तुगू तीर सी लगी दिल में
देखे जो मेरी नेकी को शक की निगाह से
कभी ख़्वाबों में मिला वो तो ख़यालों में कभी
कुछ तो मैं भी डरा डरा सा था
ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत न हो मगर
क्या दिखाता है ये सफ़र देखो
वो भी हमारे नाम से बेगाने हो गए
निकले थे दोनों भेस बदल के तो क्या अजब