हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
टेढ़ी हो कर डूबती है नाव अक्सर आब में
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तुम्हें शब-ए-व'अदा दर्द-ए-सर था ये सब हैं बे-ए'तिबार बातें
जिस का राहिब शैख़ हो बुत-ख़ाना ऐसा चाहिए
मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो
रौनक़-ए-अहद-ए-जवानी अलविदा'अ
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
एक मुद्दत में बढ़ाया तू ने रब्त
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
हैं बहुत देखे चाहने वाले
ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
ब-जुज़ साया तन-ए-लाग़र को मेरे कोई क्या समझे