ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
शनावर किस तरह गिर्दाब से बे-दस्त-ओ-पा निकले
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रौनक़-ए-अहद-ए-जवानी अलविदा'अ
की मय से हज़ार बार तौबा
ब-जुज़ साया तन-ए-लाग़र को मेरे कोई क्या समझे
मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
कुछ बद-गुमानियाँ हैं कुछ बद-ज़बानियाँ हैं
चाहने वालों को चाहा चाहिए
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़