काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
आँखें सफ़ेद हो गईं इस इंतिज़ार में
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ज़ाहिद नमाज़ भूला इधर देख कर तुझे
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
काबा को अगर मानें कि अल्लाह का घर है
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
उन बुतों से रब्त तोड़ा चाहिए
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में