काबा को अगर मानें कि अल्लाह का घर है
बुत-ख़ाना में भी शैख़ नहीं कोई मकीं और
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रौनक़-ए-अहद-ए-जवानी अलविदा'अ
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
पीते हैं जो शराब मस्जिद में
तुम्हें शब-ए-व'अदा दर्द-ए-सर था ये सब हैं बे-ए'तिबार बातें
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
जो मुँह से कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ और
हैं बहुत देखे चाहने वाले
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
ब-जुज़ साया तन-ए-लाग़र को मेरे कोई क्या समझे