पीते हैं जो शराब मस्जिद में
ऐसे लोगों को पारसा कहिए
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
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Habib Jalib
Javed Akhtar
Wasi Shah
Mohsin Naqvi
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काबा को अगर मानें कि अल्लाह का घर है
ज़ाहिद नमाज़ भूला इधर देख कर तुझे
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो
कोई उस से नहीं कहता कि ये क्या बेवफ़ाई है
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
कुछ बद-गुमानियाँ हैं कुछ बद-ज़बानियाँ हैं
रौनक़-ए-अहद-ए-जवानी अलविदा'अ
मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी