शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में
मैं तुझे आदमी बना दूँगा
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देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़
कोई उस से नहीं कहता कि ये क्या बेवफ़ाई है
उन बुतों से रब्त तोड़ा चाहिए
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
पीते हैं जो शराब मस्जिद में
ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी
इलाही ख़ैर हो वो आज क्यूँ कर तन के बैठे हैं
नासेहा आया नसीहत है सुनाने के लिए
चाहने वालों को चाहा चाहिए
ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
जिस का राहिब शैख़ हो बुत-ख़ाना ऐसा चाहिए