चाहने वालों को चाहा चाहिए
जो न चाहे फिर उसे क्या चाहिए
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नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
पीते हैं जो शराब मस्जिद में
जो मुँह से कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ और
लटकते देखा सीने पर जो तेरे तार-ए-गेसू को
शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में
तुम्हें शब-ए-व'अदा दर्द-ए-सर था ये सब हैं बे-ए'तिबार बातें
अगर उल्टी भी हो ऐ 'मशरिक़ी' तदबीर सीधी हो