आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
रात का माजरा सुना दूँगा
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ऐ शैख़ ये जो मानें का'बा ख़ुदा का घर है
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
इलाही ख़ैर हो वो आज क्यूँ कर तन के बैठे हैं
देखा किसी का हम ने न ऐसा सुना दिमाग़
बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
उन बुतों से रब्त तोड़ा चाहिए
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर