किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी
फ़िक्र है कोताह और मज़मूँ बहुत है दूर का
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मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
हैं बहुत देखे चाहने वाले
जो तुम्हें याद किया करते हैं
रौनक़-ए-अहद-ए-जवानी अलविदा'अ
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
काली घटा कब आएगी फ़स्ल-ए-बहार में
काली काली घटा बरसती है
आ किधर है तू साक़ी-ए-मख़मूर
नासेहा आया नसीहत है सुनाने के लिए
गो हम शराब पीते हमेशा हैं दे के नक़्द
ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी