खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
खा गए धोका मिरी आवाज़ से
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ख़याल-ए-नाफ़ में ज़ुल्फ़ों ने मुश्कीं बाँध दीं मेरी
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़
काबा को अगर मानें कि अल्लाह का घर है
ज़ाहिद नमाज़ भूला इधर देख कर तुझे
तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा
मज़ा देखा किसी को ऐ परी-रू मुँह लगाने का
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
एक मुद्दत में बढ़ाया तू ने रब्त
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
भूल कर ले गया सू-ए-मंज़िल
बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो