आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
सीना को इस तरह से उभारा न कीजिए
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बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
गो हम शराब पीते हमेशा हैं दे के नक़्द
काली काली घटा बरसती है
मिरा ये ज़ख़्म सीने का कहीं भरता है सीने से
तेरी महफ़िल में जितने ऐ सितम-गर जाने वाले हैं
एक मुद्दत में बढ़ाया तू ने रब्त
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
हैं बहुत देखे चाहने वाले
जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया
शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं