ऐ शैख़ अपना जुब्बा-ए-अक़्दस सँभालिये
मस्त आ रहे हैं चाक गरेबाँ किए हुए
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मज़ा देखा किसी को ऐ परी-रू मुँह लगाने का
उन बुतों से रब्त तोड़ा चाहिए
की मय से हज़ार बार तौबा
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
धर के हाथ अपना जिगर पर मैं वहीं बैठ गया
किस से दूँ तश्बीह मैं ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को तिरी
रह कर मकान में मिरे मेहमान जाइए
जिस का राहिब शैख़ हो बुत-ख़ाना ऐसा चाहिए
नाला शब-ए-फ़िराक़ जो कोई निकल गया
रहता है कब इक रविश पर आसमाँ
आगे मेरे न तीखी मार ऐ शैख़